सक्रिय निष्क्रियता

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क्रिया उतनी ही सफल और कुशल होती है जितना व्यक्ति अक्रिया में होता है। अक्रिया में जाने से क्रियाएं बंद नहीं होतीं, सिर्फ कर्ता मिट जाता है। क्रियाएं तो जारी रहती हैं, सिर्फ यह भाव मिट जाता है कि मैं करने वाला हूं। और इस भाव के मिटने से दुनिया में असुविधा नहीं होगी, बहुत सुविधा होगी। इसी भाव के कारण दुनिया में बहुत असुविधा है प्रत्येक को खयाल है कि मैं कर रहा हूं! कर तो हम बहुत कम रहे हैं, कर्ता बहुत बड़ा खड़ा कर लेते हैं! उन कर्ताओं में, उन अहंकारों में संघर्ष होता है। दुनिया में जितनी असुविधा है, वह अहंकारों के संघर्ष से पैदा होती है।

क्रिया से वे ही भागते हैं, जिनकी निष्क्रियता झूठी है। जिनकी निष्क्रियता सच्ची है, उन्हें क्रिया का भय खत्म हो जाता है। क्रिया का तूफान चलता रहे और उनके भीतर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है। लेकिन जो डरते हैं कि क्रिया चली और उनकी निष्क्रियता टूटी, उनकी निष्क्रियता थोथी है, सम्हाली गई है, थोपी गई है, कल्टीवेटेड है। और इस तरह के संन्यासियों ने दुनिया में एक गलत धारणा पैदा कर दी कि जो लोग शांत हो जाते हैं, वे जिंदगी से भाग जाते हैं। ध्यान रहे, शांत आदमी कहीं नहीं भागता, सिर्फ अशांत भागते हैं।अशांत डरते हैं, इसलिए भागते हैं। शांत आदमी को भागने का कारण ही नहीं रह जाता। शांत तो जहां भी खड़ा है, वहीं खड़ा रहता है, क्योंकि शांत को अब कोई कारण नहीं है जो अशांत कर सके। अब अशांति के तूफान चलते रहें, बवंडर बाहर और भीतर की शांति अपनी जगह खड़ी होगी। बल्कि शांत आदमी ऐसे बवंडरों को निमंत्रण दे देगा, ऐसे बवंडरों को बुलाएगा, बुलावा दे आएगा कि आना, क्योंकि जब भीतर शांति हो और बाहर तूफान चलते हों तो इन दोनों के विरोध में जो पुलक, जो अनुभूति उपलब्ध होती है, वह और किसी क्षण में कभी उपलब्ध नहीं होती इन दोनों के विरोध के बीच में जैसे अंधेरी रात में बिजली चमक जाए तो वह चमक भरे दिन में चमकी हुई बिजली की चमक से बहुत भिन्न है। ठीक वैसे ही शांत चित्त हो जहां और बाहर की अशांति चारों तरफ डोलती हो तो कोई अंतर नहीं पड़ता। बल्कि उस अशांति के बीच वह शांति और घनी और गहरी और प्रगाढ़ हो जाती है।

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