आवरण
धर्म और अधर्म का आवरण इतना घना है कि अगर तुम धर्म की तरफ भी जाते हो तो तुम चमत्कार खोजते हो वहां भी और अधर्म की तरफ जाते हो तो खुदको किसीभी चीज से भरने के अहंकार में लग जाते हो । धर्म तो परम आनंद है परम आत्मा है कोई चमत्कार नहीं है की इस संसार में जो खोया धर्म में लगने से मिलेगा, धर्म अगर आस्था के रूप में हो तो सब मीला ही हुआ है । धर्म अनुभव है आत्मा का और अधर्म उसी आत्मा की हत्या है। धर्म अमृत है जीवन का, तुम चाहते तो अमृत हो; लेकिन उससे आत्महत्या करना चाहते हो। और अमृत से कोई आत्महत्या नहीं होती। अमृत पीया कि तुम अमर हो जाओगे। लेकिन तुम अमृत की तलाश में आते हो तो भी तुम्हारा लक्ष्य आत्महत्या का है। धन या देह, संसार का कोई न कोई अंग, वही तुम धर्म से भी पूरा करना चाहते हो। सुनो लोगों की प्रार्थनाएं, मंदिरों में मस्जिदों में, चर्च में जाकर वे क्या मांग रहे हैं? और तुम पाओगे कि वे वहा भी संसार मांग रहे हैं। किसी के बेटे की शादी नहीं हुई है; किसी के बेटे को नौकरी नहीं मिली है; किसी के घर में कलह है। मंदिरों में मस्जिदों में, चर्च में भी तुम संसार को ही मांगने जाते हो? तुम्हारा मंदिरों, मस्जिद, चर्च सुपर मार्केट होगा, बड़ी दुकान होगा, जहां ये चीजें भी बिकती हैं, जहां सभी कुछ बिकता है। लेकिन तुम्हें अभी मंदिरो, मस्जिदों में, चर्च की कोई पहचान नहीं। इसलिए वहा जो पुजारी, पादरी, मौलवी बैठे हैं, वे दुकानदार हैं; क्योंकि वहां जो लोग आते हैं, वे संसार के ही ग्राहक हैं। असली मंदिरों, मस्जिदों चर्च से तो तुम बचोगे। क्योंकि वो तो तुम जहा हो वही मौजूद है । तुम मदारियों की तलाश में हो। तुम चमत्कार से प्रभावित होते हो। क्योंकि तुम्हारी गहरी आकांक्षा, वासना परमात्मा या धर्म की नहीं है; तुम्हारी गहरी वासना संसार की है। जहां तुम चमत्कार देखते हो, वहां लगता है कि यहां कोई गुरु है। यहां आशा बंधती है कि वासना पूरी होगी। जो गुरु हाथ से ताबीज निकाल सकता है, वह चाहे तो कोहिनूर भी निकाल सकता है। बस गुरु के चरणों में, सेवा में लग जाने की जरूरत है, आज नहीं कल कोहिनूर भी निकलेगा। इस संसार से भागना नहीं है बस व्यर्थता देखनी है और इसी संसार को जीवंत करना है तब धर्म आस्था बनेगा फिर उसी मंदिरों, मस्जिदों में तुम्हे धर्म ही दिखेगा तब सब मांगने की वासना तिरोहित होजाएगी और एक आवरण जो मुखौटा है गिर जायेगा । लोगों को देखो, तिजोरी के पास कैसे जाते हैं। बिलकुल हाथ जोड़े, जैसे मंदिर के पास जाते हैं। तिजोरी पर ‘लाभ-शुभ’, ‘श्री गणेशाय नमः’। तिजोरी भगवान है! उसकी वे पूजा करते हैं। दीवाली के दिन पागलों को देखो, सब अपनी-अपनी तिजोरी की पूजा कर रहे हैं। वहां उनके प्राण हैं। किस भाव से वे करते हैं, वह भाव देखने जैसा है। दुकानदार हर साल अपने खाता-बही शुरू करता है, तो स्वास्तिक बनाता है, ‘लाभ-शुभ’ लिखता है, ‘श्री गणेशाय नमः’ लिखता है। तुम्हें पता है कि यह गणेश की इतनी स्तुति वह क्यों करता है? यह गणेश पुराने उपद्रवी हैं। पुरानी कथा है कि गणेश विघ्न के देवता हैं। विघ्न को नाश करने वाले देवता, दिखते भी इस ढंग से हैं कि उपद्रवी होने चाहिए। एक तो खोपड़ी अपनी नहीं। जिसके पास अपनी खोपड़ी नहीं है, वह आदमी पागल है। उससे तुम कुछ भी...कुछ भी असंभव वह कर सकता है। ढंग-डौल उनका देखो, संदिग्ध है। चूहे पर सवार हैं। वह चूहा तर्क है; कतरनी की तरह काटता है। तर्क कभी भी भरोसे योग्य नहीं है। तर्क जहां भी जाएगा, वहां विघ्न उपस्थित करेगा। जिसके जीवन में तर्क घुस जाएगा, उसके जीवन में उपद्रव आ जाएंगे, अराजकता आ जाएगी, सब शांति खो जाएगी। तो गणेश पुराने देवता हैं विघ्न के। जहां भी कहीं कुछ शुभ हो रहा हो, वे मौजूद हो जाते थे। लोग उनसे डरने लगे। डरने के कारण पहले ही उनको हाथ जोड़ लेते हैं कि आप--कृपा करके आप कृपा रखना, साल में। एक बार आना फिर विसर्जित होजाना बाकी हम सब सम्हाल लेंगे। और धीरे-धीरे हालत ऐसी हो गई कि जो देवता विघ्न का था, लोग उसको मंगल के विघ्न को नाश करने वाले देवता मानने लगे। पर वे भूल गए हैं कहानी। वही गणेशजी जिसकी सकारात्मक ऊर्जा है अपने माता पिता के चारो और चक्कर लगाकर जो पूजा जो भक्ति जो आस्था का धर्म दर्ज है उसी शास्त्रोमें, लोग वो भूल गए वो कुछ याद नहीं रखा क्यों, क्योंकि उससे तिजोरिया नही भर पाएगी और न मनोरंजन हो पाएगा गणेश विसर्जन का। में ये नही बोल रहा मनोरंजन मत करो पर गणेशजी सकारात्मक ऊर्जा है उसका भी पालन करो और साल में एक बार नही पूरी जिंदगी के लिए इसी सकारात्मक गणेशजी की ऊर्जा पर आस्था को केंद्रित करो और नकारात्मक भाव को विसर्जित करो।
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