या निशा सर्वभूतानाम् तस्याम् जागर्ति संयमी।
जो सबके लिए गहरी नींद है, जो सबके लिए निशा है, जो भोगी के लिए बिलकुल बेहोशी है, वहां भी योगी जागा हुआ है। पहले तो जागे में जागो, फिर सोने में जागना। मगर चौबीस घंटे का स्वाद धीरे-धीरे जागरण का हो जाए--तो सदगुरु! समाधि समझी कि भीतर कोई सदगुरु बैठे हुए हैं! भीतर संभावना है होश की। तुम्हारे भीतर अंतरात्मा है। मगर अंतरात्मा दबी है बाहर से डाले गए विचारों से। न मालूम कितने विचार थोप दिए गए हैं। मां-बाप ने थोपे हैं, शिक्षकों ने थोपे हैं, समाज ने थोपे हैं, पंडित-पुरोहित-राजनेताओं ने थोपे हैं--न मालूम कितने विचार थोप दिए गए हैं! तुम्हारे भीतर कौन है, इसकी तो पहचान ही नहीं रह गई है--इतने पर्दे हैं, पर्दों पर पर्दे हैं, कि पर्दे उठाते-उठाते थक जाओ। चेहरों पर चेहरे हैं, मुखौटे हैं, कि मुखौटे उतारते-उतारते थक जाओ, तुम्हें पता ही न चले कि असली चेहरा कहां है! तुम इस तरह हो जैसे प्याज की गांठ। उतारते जाओ पर्त पर पर्त और नई पर्त निकल आती है। और ध्यानी को यही करना होता है। प्याज की गांठ की तरह अपने को छीलना होता है। उतारते जाओ पर्त पर पर्त, जब तक कि शून्य हाथ में न रह जाए। जिस दिन शून्य हाथ में रह जाएगा, सब पर्तें उतर गईं, उस दिन तुम्हारा सदगुरु जाग गया। और उस दिन वह भीतर का सदगुरु वही बोलेगा जो बाहर के सदगुरु सदा बोले हैं। क्योंकि बाहर और भीतर का भेद ही नहीं है सदगुरु में। बुद्ध जैसा बोलते हैं वैसा ही तुम्हारे भीतर का जाग्रत स्वरूप बोलेगा--वही, ठीक वही। बुद्ध ने कहा है: मुझे तुम कहीं से भी चखो, मेरा स्वाद एक है। जैसे सागर को कहीं से भी चखो, खारा है। जहां भी तुम जागृति को चखोगे, उसका स्वाद एक है।
हे मेरे अंतर के वासी,
कुछ तो बोलो!
दो क्षण को ही आ पाया हूं
कोलाहल से दूर
जगत के, अपने मन के!
सदा न ऐसा हो पाता
कुछ अपनी कह लो
मेरी सुन लो!
अंतर के वासी बोलो तो!
चलता-चलता थक जाता हूं
जग की राहें,
सुनता-सुनता थक जाता हूं
जग की बातें
कहता-कहता थक जाता हूं
जग से बातें,
आज मिला अवसर कुछ अपनी
तुम से कह लूं,
बात तुम्हारी भी मैं सुन लूं,
हे मेरे अंतर के वासी,
कुछ तो बोलो!
साथ तुम्हारा थकन मिटाता,
साथ तुम्हारा राह सुझाता,
फिर भी साथ न रहने पाता,
ऐसा क्यों है?
हे मेरे अंतर के वासी
कुछ तो बोलो!
मुझको खींच रहा है फिर
जग का कोलाहल,
मुझको खींच रहा है फिर
मन का कोलाहल,
मुझको खींच रही हैं फिर
जगती की राहें!
अनबोले भी शक्ति नई
तुमने दी मुझको,
चिर कृतज्ञ मैं,
लो मेरा नतशिर प्रणाम
अंतर के वासी!
वह जो भीतर का सदगुरु है, कुछ बोलता नहीं। वहां तो मौन में ही बोध का आविर्भाव होता है। वहां शब्दों की गति नहीं है, वहां तो निःशब्द है, शाश्वत निःशब्द है। तुम मन का कोलाहल समाप्त करो। मन का शोरगुल समाप्त करो। पहले मन से उतरो भाव में, फिर भाव से उतर जाओ अस्तित्व में। और फिर अस्तित्व से उतर जाओ अनस्तित्व में। ये चार चरण हैं। उस अनस्तित्व को बुद्ध ने अनत्ता कहा है। नागार्जुन ने शून्य कहा है। पतंजलि ने समाधि कहा है। उस समाधि में तुम्हारे भीतर जो छिपा हुआ परमात्मा है, वह प्रकट होगा। जैसे हजार-हजार सूर्य ऊग आएं एक साथ; कि करोड़-करोड़ कमल खिल जाएं एक साथ; अनाहत का नाद हो; कि ओंकार गूंजने लगे तुम्हारे भीतर। भीतर का सदगुरु तो केवल प्रतीक है। तुम जो हो, उसे जान लेना भीतर के सदगुरु को जान लेना है। मैं कौन हूं, इसका उत्तर पा लेना भीतर के सदगुरु को जान लेना है।
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