अष्टावक्र
सम्राट जनक ने पंडितों की एक बड़ी सभा बुलाई; सभी आत्मज्ञानियों को निमंत्रण भेजे। और वह चाहता था कि परम सत्य के संबंध में कुछ उदघाटन हो सके। और जो भी परम सत्य को उदघाटित करेगा, उसके लिए उसने बहुत धनधान्य भेंट करने के लिए आयोजन किया था। लेकिन ये निमंत्रण भी उन्हीं को पहुंचे, जो ख्यातिनाम थे--स्वभावतः--जिनके हजारों शिष्य थे; जिन्हें लोग जानते थे; जिन्होंने शास्त्र लिखे थे; जिनके पांडित्य की चर्चा थी; जो वाद-विवाद में कुशल थे; उनको ये निमंत्रण पहुंचे। एक आदमी था, उसे निमंत्रण नहीं मिला। शायद जान कर ही निमंत्रण नहीं दिया गया। उस आदमी का नाम था अष्टावक्र। उसका शरीर आठ जगह से टेढ़ा था। उसे देख कर ही अप्रीतिकर अनुभव होता था, विकर्षण होता था। और ऐसे शरीर में कहीं आत्मज्ञानी हो सकता है!
अष्टावक्र के पिता को निमंत्रण मिला था। कुछ काम आ गया, तो अष्टावक्र अपने पिता को बुलाने जनक के दरबार चला गया। वह जब अंदर घुसा, तो पंडितों की बड़ी संख्या इकट्ठी थी, वे सब उसे देख कर हंसने लगे। वह हंसने योग्य था। उसका शरीर निश्चित ही कुरूप था--आठ जगह से टेढ़ा। चले तो ऐसा लगे कि वह कोई मजाक कर रहा है। बोले तो ऐसा लगे कि वह कुछ व्यंग्य कर रहा है। वह कार्टून था, आदमी नहीं था। वह सर्कस में जोकर हो सकता था। लेकिन जब सारे लोग उसे देख कर--उसकी चाल और ढंग को, ऊंट जैसा आदमी--हंसने लगे, तो वह भी खिलखिला कर हंसा।
उसकी खिलखिलाहट की हंसी ने सभी को चुप कर दिया। सभी हैरान हुए कि वह क्यों हंस रहा है! और जनक ने पूछा कि ये लोग क्यों हंस रहे हैं, वह तो मैं समझा, अष्टावक्र ! लेकिन तुम क्यों हंसे? अष्टावक्र ने कहा, मैं इसलिए हंसा कि यह चमारों की सभा को तुमने पंडितों की सभा समझा है। ये सब चमार हैं। इनको शरीर ही दिखाई पड़ता है, चमड़ी दिखाई पड़ती है। मैं जो कि यहां सबसे सीधा हूं, वह इन्हें अष्टावक्र दिखाई पड़ रहा है। और ये सब तिरछे हैं! और तुम इनसे अगर ज्ञान की आशा रख रहे हो जनक, तो तुम रेत से तेल निचोड़ने की कोशिश कर रहे हो। ज्ञान चाहिए हो तो मेरे पास आ जाना!
और अष्टावक्र ने ठीक कहा। लेकिन यह होता है; क्योंकि बाहर की आंख बाहर को ही देख सकती है। तुम भी बाहर की आंख से परेशान हो, क्योंकि सभी तरफ आंखें ही आंखें हैं, और वे सब तुम्हारे शरीर को देखती हैं। शरीर सुंदर हो तो तुम सुंदर, शरीर कुरूप हो तो तुम कुरूप। और उन सबका इतना शोरगुल है चारों तरफ, और उनकी धारणा मजबूत है; क्योंकि बहुमत उनका है। तुम हमेशा अल्पमत हो, इकाई, और वे बहुत हैं। उनसे अगर तुम हार जाते हो, आश्चर्य नहीं। तुम भी अपने को मान लेते हो कि मैं शरीर हूं, तो आश्चर्य नहीं। आश्चर्य तो तब होता है जब तुम इन लोगों की आंखों से बच पाते हो और पहचान पाते हो कि मैं शरीर नहीं हूं।
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