चरनदास
अजब फकीरी साहबी, भागन सूं पैये।
प्रेम लगा जगदीश का, कछु और न चैये।।
राव रंक सूं सम गिनै, कछु आसा नाहीं।
आठ पहर सिमिटे रहैं, अपने ही माहीं।।
बैर-प्रीत उनके नहीं, नहिं वाद-विवादा।
रूठे-से जग में रहैं, सुनैं अनहद नादा।।
जो बोलैं सौ हरिकथा, नहिं मौनै राखैं।
मिथ्या कडुवा दुरबचन, कबहूं नहिं भाखैं।।
जीव-दया अरु सीलता, नख सिख सूं धारैं।
पांचौं दूतन बसि करैं, मन सूं नहिं हारैं।
दुख-सुख दोनों के परे, आनंद दरसावैं।
जहां जांहि अस्थल करैं, माया-पवन न जावै।।
हरिजन हरि के लाड़िले, कोई लहै न भेवा।
सुकदेव कही चरनदास सूं, कर तिनकी सेवा।।
हिरदै माहीं प्रेम जो, नैनों झलके आय।
सोइ छका हरिरस-पगा, वा पग परसौ धाय।।
पीव बिना तो जीवना, जग में भारी जान।
पिया मिलै तो जीवना, नहीं तो छूटै प्रान।।
वह विरहिन बौरी भई, जानत न कोउ भेद।
अगिन बरै हियरा जरै, भये कलेजे छेद।।
राख ही राख है, इस ढेर में क्या रक्खा है
खोखली आंखें--जहां बहता रहा आबे-हयात
कब से एक गार की मानिंद पड़ी है वीरां
कब्र में सांप का बिल झांक रहा हो जैसे
राख ही राख है।
अंगुलियां--सदियों को लम्हों में बदलने वाली
अंगुलियां--शेर थीं नगमा थीं तरन्नुम थीं कभी
अंगुलियां जिनमें तेरे लम्स का जादू था कभी
अब तो बस सूखी हुई नागफनी हों जैसे
राख ही राख है।
दिल--कि था नाचती, गाती हुई परियों का जहां
अनगिनत यादों का, अरमानों का इक शीशमहल
तेरी तस्वीर दरीचों पर खड़ी हंसती थी
अब तो पिघले हुए लावे के सिवा कुछ भी नहीं
राख के जलते हुए ढेर में क्या पाओगे
शहर से दूर श्मशान कहां जाओगे
राख ही राख है।
चरनदास
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