फर्क
किसी ने इमर्सन को पूछा कि सच और झूठ में कितना फासला है? तो उसने कहा: चार अंगुल का--आंख और कान के बीच जितना फासला है। बस चार अंगुल का फासला है। कान जो लेता है, जो ग्रहण करता है, वह प्रतिबिंब होता है। आंख जो देखती है और लेती और ग्रहण करती है, वह साक्षात्कार होता है।
सत्य और झूठ में बहुत फर्क नहीं है, इसलिए तो झूठ धोखा दे पाता है। अगर बहुत फर्क होता तो सभी लोग चौंक जाते। फर्क चार अंगुल का है। झूठ सच के बहुत करीब है। ऐसे ही, जैसे जब तुम धूप में चलते हो तो तुम्हारी छाया तुम्हारे बहुत करीब होती है। ऐसा थोड़े ही है कि तुम्हारी छाया मीलों दूर चल रही है, तुम कहीं चल रहे हो, तुम्हारी छाया कहीं चल रही है। तुम्हारी छाया बिलकुल झूठ है। छाया ही है, होना क्या है वहां? कोई अस्तित्व नहीं है छाया का। लेकिन तुम्हारे पैरों से सटी-सटी चलती है। एक इंच का भी फासला नहीं छोड़ती। ऐसा ही सच के साथ झूठ चलता है। झूठ सच की छाया है। अगर तुम ठीक समझ पाओ तो झूठ सच की छाया है। इसलिए तो धोखा दे पाता है नहीं तो धोखा भी कैसे देगा? अगर झूठ बिलकुल ही सच जैसा न हो, जरा भी सच जैसा भी न हो तो कौन धोखे में पड़ेगा? झूठे सिक्के से तुम धोखे में आ जाते हो क्योंकि वह सच्चे सिक्के जैसा लगता है कम से कम; हो या न हो, लगता तो है। बिलकुल सच्चे सिक्के जैसा लगता है। झूठ सच जैसा लगता है, बस लगता है। रूपरेखा बिलकुल सच की ही होती है झूठ में भी। एक ही बात की कमी होती है, सच में प्राण होते हैं, झूठ में प्राण नहीं होते। तुम्हारी छाया का ढंग तुम्हारे जैसा ही होता है। रूपरेखा तुम्हारे जैसे ही होती है। तुम्हारी तस्वीर इसीलिए तो तुम्हारी कहलाती है। सब ढंग तुम जैसा होता है। लेकिन तस्वीर तस्वीर है, तुम तुम हो। फर्क क्या है? फर्क इतना ही है कि तुम्हारे भीतर प्राण हैं और तस्वीर के भीतर प्राण नहीं हैं। तस्वीर तुम्हारे जैसी लगती है लेकिन कैसे तुम्हारे जैसी हो सकती है? झूठ सच की तस्वीर है। तुमने अकसर ऐसा ही सोचा होगा कि झूठ सच से बिलकुल विपरीत है। बिलकुल विपरीत होता तो झूठ धोखा ही न दे पाता। झूठ सच से विपरीत नहीं है, तस्वीर है। आकृति बिलकुल सच जैसी है। सच से बिलकुल तालमेल खाती है। ऐसा ही समझो कि रात चांद को देखा झील में; वह जो झील का चांद है, झूठ है। असली चांद जैसा है। और कभी-कभी तो असली चांद से भी ज्यादा सुंदर मालूम होता है। झूठ खूब अपने को सजाता है। झूठ खूब आभूषण पहनता है। झूठ हीरे-जवाहरातों में अपने को छिपाता है। झूठ अपने आस-पास प्रमाण जुटाता है। झूठ सब उपाय करता है कि पता न चल जाए कि मैं झूठ हूं। आकाश में चांद है वह तो सच है। झील में जो प्रतिबिंब बन रहा है वह झूठ है। लेकिन है वह सच का ही प्रतिबिंब। जो तुमने कान से सुना है वह भी सच का ही प्रतिबिंब है। किसी ने देखा, कोई जागा, किसी ने अनुभव किया, अपने अनुभव को वाणी में गुनगुनाया। तुमने वाणी कान से सुनी। यह चांद का प्रतिबिंब बना। तुमने किसी संत में सीधा देखा। उसके शब्दों के माध्यम से नहीं, तुमने शब्द हटा कर देखा। तुमने अपने और संत के बीच में शब्दों की दीवाल न रखी, आड़ न रखी; तुमने शब्दों को सेतु न बनाया; तुमने शब्द हटा ही दिए; तुमने सीधा देखा, निःशब्द में देखा; तब तुम चांद को देख पाओगे।
इसलिए मैं कहता हूं, सच कहते हैं दरिया-
कानों सुनी सो झूठ सब आंखों देखी सांच।
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