विवाह

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विवाह अनैतिक नही है, विवाह करके प्रेम करना अनैतिक है। लोग प्रेम करेंगे, वे भी साथ रहना चाहेंगे। इसलिए प्रेम से जो विवाह निकलेगा, वह अनैतिक नहीं रह जाएगा। लेकिन हम उलटा काम कर रहे हैं। हम विवाह से प्रेम निकालने की कोशिश कर रहे हैं, जो कि नहीं हो सकता। विवाह तो एक बंधन है और प्रेम एक मुक्ति है। लेकिन जिनके जीवन में प्रेम आया है, वे भी साथ जीना चाहें, स्वाभाविक है। लेकिन साथ जीना उनके प्रेम की छाया ही हो। जिस दिन विवाह की संस्था नहीं होगी, उस दिन स्त्री और पुरुष साथ नहीं रहेंगे, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं। सच तो मैं ऐसा कह रहा हूं कि उस दिन ही वे ठीक से साथ रह सकेंगे। अभी साथ दिखाई पड़ते हैं, साथ रहते नहीं। साथ होना ही संग होना नहीं है। पास-पास होना ही निकट होना नहीं है। जुड़े होना ही एक होना नहीं है।

विवाह की संस्था को मैं अनैतिक कह रहा हूं। और विवाह की संस्था चाहेगी कि प्रेम दुनिया में न बचे। कोई भी संस्था सहज उदभावनाओं के विपरीत होती है। क्योंकि तब संस्थाएं नहीं टिक सकतीं। दो व्यक्ति जब प्रेम करते हैं, तब वह प्रेम अनूठा ही होता है। वैसा प्रेम किन्हीं दो व्यक्तियों ने कभी नहीं किया होता। लेकिन दो व्यक्ति जब विवाह करते हैं, तब वह अनूठा नहीं होता। तब वैसा विवाह करोड़ों लोगों ने किया है। विवाह एक पुनरुक्ति है, प्रेम एक मौलिक घटना है। जितना विवाह प्रभावी होगा, उतना ही प्रेम का गला घुटता चला जाएगा। लेकिन, जिस दिन हम प्रेम को प्राथमिकता दे सकेंगे जीवन में और दो व्यक्तियों का साथ रहना एक समझौता नहीं होगा, उनके प्रेम का सहज फल होगा, उस दिन विवाह नहीं होगा इस अर्थ में जिस तरह आज है, न इस तरह तलाक होगा जैसा आज है। दो व्यक्ति साथ रहना चाहें, यह उनका आनंद है। न रहना चाहें, यह उनका आनंद है। इसमें समाज को कोई बाधा नहीं है। तो मैंने विवाह संस्था की तरह अनैतिक है, ऐसा कहा। विवाह प्रेम की छाया की तरह बिलकुल स्वाभाविक है। उसमें कोई अनैतिकता नहीं है।

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